Wednesday, March 18, 2009

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व्याख्या:भगवान सचमुच बड़ा शासक और अनुशासक है वेद में कहा है
इन्द्र ईशन ओजसा (ऋ 8.13.9)भगवान अपने स्वाभविक बल के कारण ईशान= शासक है
उतो पतिर्य उच्चयते कृष्टीनामेक इद्वशी( ऋ 8.13.9) जो अकेला ही सम्पूर्ण प्रजाओं का स्वामी तथा वशी= नियन्त्रण में रखने वाला कहा जाता हैसृष्टि के आरम्भ में मनुष्य के कल्याण के लिए भगवान वेद प्रदान करता है इसी कारण योगीजन उसे
स एष पूर्वेषामपि गुरु कालेनानवच्छेदात् (यो0 द0 1.26)आदिम ऋषियों का गुरु मानते हैं सचमुच वह गुरुओं का गुरु है राजा का,शासक का, शासन शरीर पर होता है, किन्तु गुरु का शासन ह्रृदय, बुद्धि सभी पर होता है भगवान की मह्त्ता के कारणों में एक यह भी कारण है कि भगवान अनुशासक है, गुरु हैशास इत्था महाँ असि=तूं अनुशासक है अत: महान है अनुशासक का अर्थ अनुकूल उपदेशक है भगवान् जीव के कल्याण के लिए केवल सृष्टि के आरम्भ में वेद ग्यान देकर शान्त नहीं हो जाता, वरन् सदा हित का उपदेश करता रहता है मनुष्य जब बुरा कार्य करने का विचार करता है, भगवान उसको वारण देते हैं यह और बात है कि बहुधा जीव उसको अनसुना कर देता है; किन्तु भगवान उसे अवष्य सावधान करते हैं
भगवान के कृपा पात्र के शत्रु स्व्यं नष्ट हो जाते हैं मानो उनको भगवान ने खदेड़ दिया हो, अत: भगवान अमित्रखाद= शत्रुओं को खदेड़ने वाला है चूँकि भगवान भक्त के शत्रुओं के साथ आकर युद्ध करता नहीं दीखता, किन्तु भक्त के शत्रुओं में प्रतिदिन न्यून्ता आ रही होती है, इसलिए भगवान अदभुत अमित्रखाद सिद्ध होता है भगवान की महिमा का एक प्रबल कारण और बताया हैन यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन=उसका सखा न कभी मारा जाता है न कभी पराजित होता है भगवान वैसे तो सबका सखा है किन्तुभवन्ति भव्येषु ही पक्षपाता:( भव्यों के प्रति प्रेम हो ही जाता है) के अनुसार भगवान भक्तों का विशेष सखा है जैसे कि वेद में कहा हैइन्द्रो मुनीनां सखा =परमेश्वर मुनियों = भगवद् भक्तों का सखा है मित्र की स्थूल पहचान यह है कि वह मित्र को संकट से बचाता है वेद में कहा गया है
सखा सखायमतरद्विषूचो: (ऋ 7.18.6)मित्र मित्र को विपत्ति से बचाता है मृत्यु और पराजय ( बल की हानी, धन की हानी, जन की हानी, तन की हानी, मन ‌की हानी सभी पराजय के अन्तर्गत हैं, क्योंकि संसार संग्राम में इनकी न्यूनता से पराजय हुआ करती है) ये दोनो भारी आपत्तियाँ हैंभगवान का मित्र इनके पाश में नहीं फंसतान यस्य हन्यते सखा न जीयते कदाचन =आत्मा अमर है उसकी मृ‌त्यु नहीं होतीशरीर से आत्मा के वियोग का नाम मृ‌त्यु है अग्यान के कारण आत्मा शरीर को अपना आपा मान बैठा है, शरीर के विनाश को आत्मा का नाश समझ बैठा है, अत: शरीर में किसी प्रकार के उपद्रव को देखकर वह आत्मनाश को सन्निहित देखता है प्रभु का सखा बनने से उसे अपने अविनाषी स्वरूप का ग्यान होता है और वह अपने को अमर मानकर म्रृत्यु से निर्भय होता है इसलिए कहान यस्य हन्यते सखाइसी शरीर और आत्मा के भेद का ग्यान होने पर , आत्मा के अविनाशी ग्यात होने पर, शरीर नाश से, शरीर के विकृ‌त होने से वह आत्मा का नाश और विकार नहीं मानता अत: कहान जीयते कदाचनयह स्मरण रखना चाहिए कि भगवान् स्वाभाविक मित्र है हमने उसकी उपेक्षा कर रखी है, वह हमारी उपेक्षा कभी नहीं करता एक बार उसकी और बढ़ने की चेष्टा करें तो फिर ग्यात हो कि वह हमारा स्वागत कैसे करता है सांसारिक मित्र तो रूठता भी है और कभी कभी तो सदा के लिए संग त्याग देता है, किन्तु भगवान न कभी रूठता है, न कभी संग त्यागता है इस भेद को जानकर मनुष्य को सच्चे मित्र से मित्रता गाठँनी चाहिए

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