Maharishi Swami Dayanand Saraswati Founder of Arya Samaj. ARYA SAMAJ FOUNDED IN. MUMBAI ON APRIL 7th
Sunday, July 26, 2009
Samskrita Residential Camp at Arya Samaj Rajkot .
If I was asked what is the greatest treasure which India possesses and what is her finest heritage, I would answer unhesitatingly - it is the Sanskrit language and literature and all that it contains. - Pt. Jawaharlal Nehru
"The very notion of India is hardly conceivable without Sanskrit, which has symbolised and cemented the unity of Indian culture throughout several millenia". - Professor V. V. Ivanov - Russian linguist Sanskrit flows through our blood. It is only Sanskrit that can establish the unity of the country - Dr. C. V. Raman
Here are some of the reasons that philosophers, politicians, academicians and historians state why we as a humanity should pursue the study of Samskritam.
Samskritam literature is national in one sense, but its purpose has been universal. That was why it commanded the attention of people who were not followers of a particular culture - Dr. S.Radhakrishnan
Sanskrit is the language of Indian culture and inspiration, the language in which all her past greatness, her rich thought, and her spiritual aspirations are enshrined. Sanskrit has not only been the treasure-house of our past knowledge and achievements in the realm of thought and art, but it has also been the principal vehicle of our nation's aspirations and cultural traditions, besides being the source and inspiration of India's modern languages. - Dr. Rajendra Prasad
SANSKRIT BHARTI ABHYAS VARG AT ARYA SAMAJ RAJKOT
"The reasons for studying Sanskrit today are the same as they ever were: that the vast array of Sanskrit texts preserves for us a valuable part of the cultural heritage of mankind, including much beautiful literature and many interesting, even fascinating ideas". - Professor Richard Gombrich, Boden Chair at Oxford University
GREENARY AT ARY SAMAJ MANDIR RAJKOT
महर्षि दयानन्द कृत आर्याभिविनयः से (35)
प्रार्थना विषय
सेमं नः काममापृण गोभिरश्वैः शतक्रतोस्तवाम त्वा स्वाध्यः 35
ऋ. 11319
व्याख्यान ..
हे "शतक्रतो" अनन्तक्रियेश्वर ! आप असंख्यात विज्ञानादि यज्ञों से प्राप्य हो, तथा अनन्तक्रियायुक्त हो सो आप "गोभिरश्वैः" गाय उत्तम इन्द्रिय श्रेष्ठ पशु, सर्वोत्तम अश्वविद्या (विज्ञानादियुक्त) तथा अश्व अर्थात श्रेष्ठ घोड़ादि पशुओं और चक्रवर्ती राज्यैश्वर्य से "सेमं, नः, काममापृण" हमारे काम को परिपूर्ण करो फिर हम भी "स्तवामः, त्वा, स्वाध्य" सुबुद्धियुक्त हो के उत्तम प्रकार से आपका स्तवन (स्तुति) करें हम को दृड़ निश्चय है कि आपके बिना दूसरा कोई किसी का काम पूर्ण नहीं कर सकता आपको छोड़के दूसरे का ध्यान वा याचना जो करते हैं, उनके सब काम नष्ट हो जाते हैं 35
From MAHARSHI DAYANAND SARASWATI's 'ARYABHIVINAY'
'ईश्वर पूजा का वैदिक स्वरूप'(4) लेखक - शास्त्रार्थ महारथी स्व.पं.रामचन्द्र देहलवी जी
From:-http://www.aryasamaj.org/
मैंने आपको अपने व्याख्यान के पूर्व भाग में बताया था (चेतनों में) परमेश्वर और (जड़ पदार्थों में) प्रकृति दोनों बिलकुल पूरे हैं, इन्हें किसी चीज की आवश्यक्ता नहीं है
प्रकृति कहती है यदि तुम मुझसे फायदा उठाना चाहो तो उठा लो मेरा सही प्रयोग करोगे तो तुम्हें लाभ होगा यदि गलत तरीके से मेरा प्रयोग किया तो हानि होगी मान लीजिए चूल्हे के पास कोई देवी खाना बना रही है यदि वह देवी फूहड़पन से काम करेगी, उसके कपड़े फैले होंगे तो आग लग जाएगी और वह खाना बनाने वाली जल जाएगी या जल कर मर जाएगी क्योंकि आग जरा भी लिहाज नहीं करेगी और जला देगी अग्नि एक प्राकृतिक पदार्थ है और उसका ठीक प्रयोग नहीं किया गया इसलिए उससे हानि हुई प्राकृतिक पदार्थ न अपने को जानते हैं, वे जीवात्मा से कहते हैं कि तुम्हीं सोच-समझकर लाभ उठा लो हमें कुछ पता नहीं है
अब भगवान के बारे में भी विचार कर लीजिए वह भी पूर्ण है उसे भी किसी चीज की आवश्यक्ता नहीं है He needs nothing for himself. वह तो आवश्यक्ता से खाली है He is Perfact. वह पूर्ण है तो अब प्रश्न यह है कि पूजा कैसे की जाय ? उसकी खिदमत या सेवा कैसे की जाय ?
भगवान् की पूजा, सेवा या खिदमत का तरीका यह है कि जो ईश्वर के गुण हैं, जिनके धारण करने से आदमी का उत्थान हो सकता है, उन्नति हो सकती है अथवा परमात्मा से मिलकर श्रेष्ठ हो सकती है, उन गुणों को अपने अन्दर धारण करें और अपने को ईश्वर-सा अर्थात् ईश्वर के गुणों से युक्त बनाने का प्रयास करें
ईश्वर के गुणों का वर्णन विस्तार से वेदों और शास्त्रों में किया हुआ है उन्हें वहाँ से जानकर अपनाएँ यहाँ उनके वर्णन की आवश्यक्ता नहीं है
जीवात्मा के अन्दर ग्रहण करने की योग्यता विद्यमान है जीवात्मा ईश्वर के गुणों को ग्रहण करने की योग्यता रखता है वह दयालु बन सकता है, न्यायकारी बन सकता है, न्यायकारी भी हो सकता है प्रातः और सांय सन्ध्या करके ऐसा बनने की चेष्ठा करें और अमल भी वैसा करें
सन्ध्या क्या है ? Introspection है आत्म निरीक्षण है प्रातः और सांय अपना आत्म-निरीक्षण करिए, देखिए के जीवन के दैनिक व्यवहार में कहाँ कहाँ कमी है, उन्हें निकालिए और ईश्वर के गुणों को धारण कीजिए
लोग कहा करते हैं, जी - बगैर मूर्ति या चित्र के गुणों को कैसे याद करें ? यही तो विचारणीय चीज है गुणों को याद करने की आवश्यक्ता नहीं है अभी आपकी समझ में यह बात एक उदाहरण से आ जाएगी आप जितने भी यहाँ बैठे हैं भली प्रकार जानते हैं आजकल बेईमानी, बदमाशी, छली का अत्यन्त जोर है प्रत्येक आदमी दूसरे को ठग करके अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है इससे किसी को भी इन्कार नहीं सब लोग इन बुराइयों से परिचित हैं जब खूब परिचित हैं तो क्या बेईमानी या चोरी का चित्र खींच सकते हैं ? नहीं खींच सकेंगे दुनिया का बड़े से बड़ा कलाकार भी चोरी या बेईमानी का चित्र नहीं खींच सकता है और न बना सकता है !! जब इनकी तसवीरें नहीं खींची जा सकती और बिना तसवीरों के आप उन्हें जानते हैं , क्योंकि ये जहीन चीजें हैं, बुद्धि से जानने की चीजें हैं बुद्धि से सोची और विचारी जाती हैं किसी के माल को बगैर इजाजत के अपने तसर्रुफ (प्रयोग) में लाना चोरी है इसकी तसवीर नहीं खींची जा सकती है इसकी कागज पर कोई तसवीर नहीं खींची जा सकती किन्तु दिमाग में तो खिंची हुई है , आपने समझ लिया चोरी को कि चोरी यह है अर्थात् गुणों को बगैर तसवीर के जान लेने की जीवात्मा में योग्यता है गुणों को हम जहनी नक्शे में जान लेते हैं बेईमानी या इमानदारी, बदकारी और जिनाकारी सब पहचानी जाती हैं तो इसी तरह परमात्मा के गुणों को भी जहनी नक्शे से जाना या पहचाना जा सकता है परमात्मा कैसा है ? न्यायकारी है किसी के साथ रिआयत नहीं करता चाहे कितना ही बड़ा शख्स क्यों न हो There is no respect of person with God परमात्मा किसी भी शख्सियत से प्रभावित नहीं होता चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है वह तो जैसा कोई कर्म करेगा उसको वैसा ही दण्ड देगा
भगवान् के इस गुण को आप धारण करें जहाँ इन्साफ का मुआमिला आ जाय डरें नहीं, घबराएँ नहीं, अभियुक्त की शख्सियत से प्रभावित न हों बल्कि साफ कहें कि अमुक व्यक्ति दोषी हैं नौशेरवाँ आदिल अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध थे क्योंकि उसने अपने बेटे को भी नहीं छोड़ा, फाँसी पर लटका दिया यहाँ पर कौम का सवाल नहीं है यहाँ तो नेकी और गुणों से मतलब है चाहे किसी भी धर्म का हो भलाई सब जगह भलाई ही है
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर के गुणों का ध्यान करने के लिए मूर्ति की आवश्यक्ता नहीं है और यदि मूर्ति से ध्यान एकाग्र करने की आदत पड़ी हुई है तो अपने पुत्र या पुत्रि को सामने बिठाकर उनके द्वारा ध्यान क्यों नहीं एकाग्र करते ? वह तो बड़ी कीमती चीज है उसमें ध्यान एकाग्र कीजिए ईश्वर का बनाया हुआ है आपका पुत्र जिसके लिए आपको प्रत्येक क्षण चिता बनी रहती है कि रोगी न हो जाय, अस्वस्थ न हो जाय तो उसी में अपने मन को केन्द्रित कर लीजिये यदि आप उस बच्चे के एक अंग के बारे में भी सोचेंगे तो भगवान् की कारीगरी की थाह न पा सकेंगे मूर्ति में ध्यान केन्द्रित नहीं होता बल्कि मुन्तशिर (अस्थिर) हो जाता है कभी आँख में, कभी कान में, कभी कहीं और कभी कहीं तो मूर्ति में मनुष्य का ध्यान केन्द्रित हो ही नहीं सकता
ध्यान का लक्षण करते हुए लिखा है, 'ध्यान निर्विषयं मनः' मन के निर्विषय होने को ही ध्यान कहते हैं अर्थात् ध्यान तभी होता है जब मन में विषय न हो रात को सोते समय यदि चिन्ताएं हैं तो नींद नहीं आती और चिन्ताएँ दूर होते ही नींद आ जाती है यह पता भी नहीं चलता कि कब नींद आ गई इस प्रकार ध्यान भी तभी होता है जब मन विषयहीन हो जाय मैं नहीं कह रहा हूँ सांख्य के रचयिता कपिल मुनि ने लिखा है यदि मन में विषय आ गए तो मनुष्य विषयों के विचार में फंस जाएगा जैसे मनुष्य किसी खूबसूरत शक्ल देखने के बाद कभी उसकी आँख के बारे में सोचता है, कभी नाक के बारे में, कभी बालों आदि के बारे में इस प्रकार विचारों की एक श्रंखला चल पड़ती है तो मूर्ति का ध्यान करने से मन केन्द्रित नहीं होता बल्कि अस्थिर हो जाता है, ध्यान बहुत सी चीजों में बँट जाता है इसलिए मूर्ति को सामने रखने से भगवान् का ध्यान कभी नहीं हो सकता
अपना मन भगवान् के गुणों पर केन्द्रित करो, खूब गहराई से विचार करो उन पर, और फिर उनके जैसा अपने को बनाने का यत्न करो उपर्युक्त उदाहरणों व स्पष्टीकरणों से मैंने ईश्वर-पुजा के लिए मूर्ति की अनावश्यक्ता सिद्ध की है
सेवा कैसे की जाय ? कोई चीज उसे देकर उसकी पूजा नहीं हो सकती है ? मैंने आपको अपने व्याख्यान में बताया है कि ईश्वर और प्रकृति दोनों पूरे हैं इन्हें किसी भी चीज की आवश्यक्ता नहीं हैं तो इन दोनों की सेवा इन्हें कोई चीज देकर नहीं होगी बल्कि अपने लाभार्थ वस्तुएँ इनसे प्राप्त करके इनकी सेवा होगी अपूर्ण की सेवा, उससे कुछ लेकर व उसे कुछ देकर होती है और पूर्ण की सेवा उससे कुछ (अपने लाभ के लिए व उन्नति के लिए, जितना जरूरी है) लेकर हुआ करती है
मुझसे, जो मेरे पास ज्यादा है उनमें से ले लीजिए और जो मेरे पास नहीं है, आपके पास है, वह आप मुझे दे दीजिए मेरा काम तो ऐसे ही चल रहा है क्योंकि मैं अपूर्ण हूँ, पूर्ण नहीं हूँ तो मुझमें जो ज्यादा है लोग मुझसे ले लेते हैं और जो अन्यों में ज्यादा है मैं अपनी आवश्यक्तानुसार ले लेता हूँ अभी मैंने एक गाना एक भजनीक महाशय से ले लिया क्योंकि उनके पास था और मेरे पास नहीं था यदि मेरे पास कोई चीज हो और उसके पास न हो तो वो मुझसे ले लें तो मेरा काम लेन-देन से चलेगा किन्तु भगवान का काम लेन-देन से नहीं बल्कि उससे लेने से ही चलेगा क्योंकि वह पूर्ण है और उसके पूरेपन में कोई फर्क नहीं आता वह सबको दिए जा रहा है क्यों दे रहा है ? अपने वजूद को सफल कर रहा है यदि उसका वजूद निरर्थक हो तो वह निकम्मा साबित होगा इसलिए परमात्मा कैसा है वह बाकार है तो परमात्मा की सेवा हम उससे कुछ लेकर करेंगे
यदि हम उसे कुछ देना चाहें तो भी क्या दें ? उसके पास तो सारी चीजें हैं वह अपार भण्डार (प्रकृति) का स्वामी है यदि चाहें तो भी हम उसे कुछ दे नहीं सकते क्योंकि हमारे पास अपना है ही क्या जो देंगे ? इसलिए भगवान् से उसके गुण ग्रहण करके हम ईश्वर की पूजा कर सकते हैं
Subscribe to:
Posts (Atom)