Maharishi Swami Dayanand Saraswati Founder of Arya Samaj. ARYA SAMAJ FOUNDED IN. MUMBAI ON APRIL 7th
Friday, July 31, 2009
SUN MEAN GURU AND MOON MEAN CHNDRA
Monday, July 27, 2009
Sunday, July 26, 2009
Samskrita Residential Camp at Arya Samaj Rajkot .
If I was asked what is the greatest treasure which India possesses and what is her finest heritage, I would answer unhesitatingly - it is the Sanskrit language and literature and all that it contains. - Pt. Jawaharlal Nehru
"The very notion of India is hardly conceivable without Sanskrit, which has symbolised and cemented the unity of Indian culture throughout several millenia". - Professor V. V. Ivanov - Russian linguist Sanskrit flows through our blood. It is only Sanskrit that can establish the unity of the country - Dr. C. V. Raman
Here are some of the reasons that philosophers, politicians, academicians and historians state why we as a humanity should pursue the study of Samskritam.
Samskritam literature is national in one sense, but its purpose has been universal. That was why it commanded the attention of people who were not followers of a particular culture - Dr. S.Radhakrishnan
Sanskrit is the language of Indian culture and inspiration, the language in which all her past greatness, her rich thought, and her spiritual aspirations are enshrined. Sanskrit has not only been the treasure-house of our past knowledge and achievements in the realm of thought and art, but it has also been the principal vehicle of our nation's aspirations and cultural traditions, besides being the source and inspiration of India's modern languages. - Dr. Rajendra Prasad
SANSKRIT BHARTI ABHYAS VARG AT ARYA SAMAJ RAJKOT
"The reasons for studying Sanskrit today are the same as they ever were: that the vast array of Sanskrit texts preserves for us a valuable part of the cultural heritage of mankind, including much beautiful literature and many interesting, even fascinating ideas". - Professor Richard Gombrich, Boden Chair at Oxford University
GREENARY AT ARY SAMAJ MANDIR RAJKOT
महर्षि दयानन्द कृत आर्याभिविनयः से (35)
प्रार्थना विषय
सेमं नः काममापृण गोभिरश्वैः शतक्रतोस्तवाम त्वा स्वाध्यः 35
ऋ. 11319
व्याख्यान ..
हे "शतक्रतो" अनन्तक्रियेश्वर ! आप असंख्यात विज्ञानादि यज्ञों से प्राप्य हो, तथा अनन्तक्रियायुक्त हो सो आप "गोभिरश्वैः" गाय उत्तम इन्द्रिय श्रेष्ठ पशु, सर्वोत्तम अश्वविद्या (विज्ञानादियुक्त) तथा अश्व अर्थात श्रेष्ठ घोड़ादि पशुओं और चक्रवर्ती राज्यैश्वर्य से "सेमं, नः, काममापृण" हमारे काम को परिपूर्ण करो फिर हम भी "स्तवामः, त्वा, स्वाध्य" सुबुद्धियुक्त हो के उत्तम प्रकार से आपका स्तवन (स्तुति) करें हम को दृड़ निश्चय है कि आपके बिना दूसरा कोई किसी का काम पूर्ण नहीं कर सकता आपको छोड़के दूसरे का ध्यान वा याचना जो करते हैं, उनके सब काम नष्ट हो जाते हैं 35
From MAHARSHI DAYANAND SARASWATI's 'ARYABHIVINAY'
'ईश्वर पूजा का वैदिक स्वरूप'(4) लेखक - शास्त्रार्थ महारथी स्व.पं.रामचन्द्र देहलवी जी
From:-http://www.aryasamaj.org/
मैंने आपको अपने व्याख्यान के पूर्व भाग में बताया था (चेतनों में) परमेश्वर और (जड़ पदार्थों में) प्रकृति दोनों बिलकुल पूरे हैं, इन्हें किसी चीज की आवश्यक्ता नहीं है
प्रकृति कहती है यदि तुम मुझसे फायदा उठाना चाहो तो उठा लो मेरा सही प्रयोग करोगे तो तुम्हें लाभ होगा यदि गलत तरीके से मेरा प्रयोग किया तो हानि होगी मान लीजिए चूल्हे के पास कोई देवी खाना बना रही है यदि वह देवी फूहड़पन से काम करेगी, उसके कपड़े फैले होंगे तो आग लग जाएगी और वह खाना बनाने वाली जल जाएगी या जल कर मर जाएगी क्योंकि आग जरा भी लिहाज नहीं करेगी और जला देगी अग्नि एक प्राकृतिक पदार्थ है और उसका ठीक प्रयोग नहीं किया गया इसलिए उससे हानि हुई प्राकृतिक पदार्थ न अपने को जानते हैं, वे जीवात्मा से कहते हैं कि तुम्हीं सोच-समझकर लाभ उठा लो हमें कुछ पता नहीं है
अब भगवान के बारे में भी विचार कर लीजिए वह भी पूर्ण है उसे भी किसी चीज की आवश्यक्ता नहीं है He needs nothing for himself. वह तो आवश्यक्ता से खाली है He is Perfact. वह पूर्ण है तो अब प्रश्न यह है कि पूजा कैसे की जाय ? उसकी खिदमत या सेवा कैसे की जाय ?
भगवान् की पूजा, सेवा या खिदमत का तरीका यह है कि जो ईश्वर के गुण हैं, जिनके धारण करने से आदमी का उत्थान हो सकता है, उन्नति हो सकती है अथवा परमात्मा से मिलकर श्रेष्ठ हो सकती है, उन गुणों को अपने अन्दर धारण करें और अपने को ईश्वर-सा अर्थात् ईश्वर के गुणों से युक्त बनाने का प्रयास करें
ईश्वर के गुणों का वर्णन विस्तार से वेदों और शास्त्रों में किया हुआ है उन्हें वहाँ से जानकर अपनाएँ यहाँ उनके वर्णन की आवश्यक्ता नहीं है
जीवात्मा के अन्दर ग्रहण करने की योग्यता विद्यमान है जीवात्मा ईश्वर के गुणों को ग्रहण करने की योग्यता रखता है वह दयालु बन सकता है, न्यायकारी बन सकता है, न्यायकारी भी हो सकता है प्रातः और सांय सन्ध्या करके ऐसा बनने की चेष्ठा करें और अमल भी वैसा करें
सन्ध्या क्या है ? Introspection है आत्म निरीक्षण है प्रातः और सांय अपना आत्म-निरीक्षण करिए, देखिए के जीवन के दैनिक व्यवहार में कहाँ कहाँ कमी है, उन्हें निकालिए और ईश्वर के गुणों को धारण कीजिए
लोग कहा करते हैं, जी - बगैर मूर्ति या चित्र के गुणों को कैसे याद करें ? यही तो विचारणीय चीज है गुणों को याद करने की आवश्यक्ता नहीं है अभी आपकी समझ में यह बात एक उदाहरण से आ जाएगी आप जितने भी यहाँ बैठे हैं भली प्रकार जानते हैं आजकल बेईमानी, बदमाशी, छली का अत्यन्त जोर है प्रत्येक आदमी दूसरे को ठग करके अपना मतलब सिद्ध करना चाहता है इससे किसी को भी इन्कार नहीं सब लोग इन बुराइयों से परिचित हैं जब खूब परिचित हैं तो क्या बेईमानी या चोरी का चित्र खींच सकते हैं ? नहीं खींच सकेंगे दुनिया का बड़े से बड़ा कलाकार भी चोरी या बेईमानी का चित्र नहीं खींच सकता है और न बना सकता है !! जब इनकी तसवीरें नहीं खींची जा सकती और बिना तसवीरों के आप उन्हें जानते हैं , क्योंकि ये जहीन चीजें हैं, बुद्धि से जानने की चीजें हैं बुद्धि से सोची और विचारी जाती हैं किसी के माल को बगैर इजाजत के अपने तसर्रुफ (प्रयोग) में लाना चोरी है इसकी तसवीर नहीं खींची जा सकती है इसकी कागज पर कोई तसवीर नहीं खींची जा सकती किन्तु दिमाग में तो खिंची हुई है , आपने समझ लिया चोरी को कि चोरी यह है अर्थात् गुणों को बगैर तसवीर के जान लेने की जीवात्मा में योग्यता है गुणों को हम जहनी नक्शे में जान लेते हैं बेईमानी या इमानदारी, बदकारी और जिनाकारी सब पहचानी जाती हैं तो इसी तरह परमात्मा के गुणों को भी जहनी नक्शे से जाना या पहचाना जा सकता है परमात्मा कैसा है ? न्यायकारी है किसी के साथ रिआयत नहीं करता चाहे कितना ही बड़ा शख्स क्यों न हो There is no respect of person with God परमात्मा किसी भी शख्सियत से प्रभावित नहीं होता चाहे वह कितना ही शक्तिशाली क्यों न हो क्योंकि वह सर्वशक्तिमान् है वह तो जैसा कोई कर्म करेगा उसको वैसा ही दण्ड देगा
भगवान् के इस गुण को आप धारण करें जहाँ इन्साफ का मुआमिला आ जाय डरें नहीं, घबराएँ नहीं, अभियुक्त की शख्सियत से प्रभावित न हों बल्कि साफ कहें कि अमुक व्यक्ति दोषी हैं नौशेरवाँ आदिल अपने न्याय के लिए प्रसिद्ध थे क्योंकि उसने अपने बेटे को भी नहीं छोड़ा, फाँसी पर लटका दिया यहाँ पर कौम का सवाल नहीं है यहाँ तो नेकी और गुणों से मतलब है चाहे किसी भी धर्म का हो भलाई सब जगह भलाई ही है
इससे यह निष्कर्ष निकलता है कि ईश्वर के गुणों का ध्यान करने के लिए मूर्ति की आवश्यक्ता नहीं है और यदि मूर्ति से ध्यान एकाग्र करने की आदत पड़ी हुई है तो अपने पुत्र या पुत्रि को सामने बिठाकर उनके द्वारा ध्यान क्यों नहीं एकाग्र करते ? वह तो बड़ी कीमती चीज है उसमें ध्यान एकाग्र कीजिए ईश्वर का बनाया हुआ है आपका पुत्र जिसके लिए आपको प्रत्येक क्षण चिता बनी रहती है कि रोगी न हो जाय, अस्वस्थ न हो जाय तो उसी में अपने मन को केन्द्रित कर लीजिये यदि आप उस बच्चे के एक अंग के बारे में भी सोचेंगे तो भगवान् की कारीगरी की थाह न पा सकेंगे मूर्ति में ध्यान केन्द्रित नहीं होता बल्कि मुन्तशिर (अस्थिर) हो जाता है कभी आँख में, कभी कान में, कभी कहीं और कभी कहीं तो मूर्ति में मनुष्य का ध्यान केन्द्रित हो ही नहीं सकता
ध्यान का लक्षण करते हुए लिखा है, 'ध्यान निर्विषयं मनः' मन के निर्विषय होने को ही ध्यान कहते हैं अर्थात् ध्यान तभी होता है जब मन में विषय न हो रात को सोते समय यदि चिन्ताएं हैं तो नींद नहीं आती और चिन्ताएँ दूर होते ही नींद आ जाती है यह पता भी नहीं चलता कि कब नींद आ गई इस प्रकार ध्यान भी तभी होता है जब मन विषयहीन हो जाय मैं नहीं कह रहा हूँ सांख्य के रचयिता कपिल मुनि ने लिखा है यदि मन में विषय आ गए तो मनुष्य विषयों के विचार में फंस जाएगा जैसे मनुष्य किसी खूबसूरत शक्ल देखने के बाद कभी उसकी आँख के बारे में सोचता है, कभी नाक के बारे में, कभी बालों आदि के बारे में इस प्रकार विचारों की एक श्रंखला चल पड़ती है तो मूर्ति का ध्यान करने से मन केन्द्रित नहीं होता बल्कि अस्थिर हो जाता है, ध्यान बहुत सी चीजों में बँट जाता है इसलिए मूर्ति को सामने रखने से भगवान् का ध्यान कभी नहीं हो सकता
अपना मन भगवान् के गुणों पर केन्द्रित करो, खूब गहराई से विचार करो उन पर, और फिर उनके जैसा अपने को बनाने का यत्न करो उपर्युक्त उदाहरणों व स्पष्टीकरणों से मैंने ईश्वर-पुजा के लिए मूर्ति की अनावश्यक्ता सिद्ध की है
सेवा कैसे की जाय ? कोई चीज उसे देकर उसकी पूजा नहीं हो सकती है ? मैंने आपको अपने व्याख्यान में बताया है कि ईश्वर और प्रकृति दोनों पूरे हैं इन्हें किसी भी चीज की आवश्यक्ता नहीं हैं तो इन दोनों की सेवा इन्हें कोई चीज देकर नहीं होगी बल्कि अपने लाभार्थ वस्तुएँ इनसे प्राप्त करके इनकी सेवा होगी अपूर्ण की सेवा, उससे कुछ लेकर व उसे कुछ देकर होती है और पूर्ण की सेवा उससे कुछ (अपने लाभ के लिए व उन्नति के लिए, जितना जरूरी है) लेकर हुआ करती है
मुझसे, जो मेरे पास ज्यादा है उनमें से ले लीजिए और जो मेरे पास नहीं है, आपके पास है, वह आप मुझे दे दीजिए मेरा काम तो ऐसे ही चल रहा है क्योंकि मैं अपूर्ण हूँ, पूर्ण नहीं हूँ तो मुझमें जो ज्यादा है लोग मुझसे ले लेते हैं और जो अन्यों में ज्यादा है मैं अपनी आवश्यक्तानुसार ले लेता हूँ अभी मैंने एक गाना एक भजनीक महाशय से ले लिया क्योंकि उनके पास था और मेरे पास नहीं था यदि मेरे पास कोई चीज हो और उसके पास न हो तो वो मुझसे ले लें तो मेरा काम लेन-देन से चलेगा किन्तु भगवान का काम लेन-देन से नहीं बल्कि उससे लेने से ही चलेगा क्योंकि वह पूर्ण है और उसके पूरेपन में कोई फर्क नहीं आता वह सबको दिए जा रहा है क्यों दे रहा है ? अपने वजूद को सफल कर रहा है यदि उसका वजूद निरर्थक हो तो वह निकम्मा साबित होगा इसलिए परमात्मा कैसा है वह बाकार है तो परमात्मा की सेवा हम उससे कुछ लेकर करेंगे
यदि हम उसे कुछ देना चाहें तो भी क्या दें ? उसके पास तो सारी चीजें हैं वह अपार भण्डार (प्रकृति) का स्वामी है यदि चाहें तो भी हम उसे कुछ दे नहीं सकते क्योंकि हमारे पास अपना है ही क्या जो देंगे ? इसलिए भगवान् से उसके गुण ग्रहण करके हम ईश्वर की पूजा कर सकते हैं
Saturday, July 25, 2009
Thursday, July 23, 2009
Tuesday, July 21, 2009
SATSANG ARYA SAMAJ RAJKOT
Reincarnation - Rebirth
Reincarnation simply means rebirth. Soul keeps changing the body one after another. It gets a bodies based on its deeds done in human life.
Soul, when in other than human body – e.g. in an animal, a bird or an insect, does not act independently. It acts either under the direction of a human being or just by natural instinct. It does not and cannot think. All its actions are controlled by others or by natural instinct. Because of that, its actions are neither rewarded nor punished.
When leaving human body, if the good deeds equal bad deeds, one is born as an ordinary human being in the next life. If good deeds exceed bad deeds then one is born as an intellectual human being. If bad deeds exceed good deeds, one is born as an animal, a bird or insect etc. based on the severity of the bad deeds.
Basically, deeds good or bad are done through:
thought,
word and
action
One reaps the fruit good or bad by receiving or paying for the deeds done with similar organs. E.g. harsh talker, liar, back stabber etc gets a life of an animal or of a mute human being.
The soul adjusts in the body it gets, whether it is a human, an animal, a bird or an insect. Soul is like water, without a color. Color makes the water colored. Same way, the soul is known as by the body it is in.
Soul continues to move from one body to another. It starts body at the time of conception, and departs at the time of death. Same soul can be a man, woman, elephant, ant or any other living being, and back and forth as well.
As humans discard worn out clothes and wear new ones, similarly soul discards the useless old body and starts a new body.
Humanity
Humanity is considering others pleasure and pain, profit and loss as your own. Not being afraid of unjust person, no matter how powerful he is, and be afraid of just person no matter how powerless he may be. Working with the full force for the protection and promotion of just person, even if one has to suffer heavy losses, even if one loses ones life during the pursuit.
All the living beings other than humans have a common characteristic. i.e. be afraid of the strong and frighten the weak; they even kill others for their selfish motive. Humans with similar characteristics be considered non-human beings. Being kind and helpful to the weak is a human characteristic.
Definition Of Non Violence
Never to have enmity of any kind, towards any living being – human, animal, bird or insect, is defined as non-violence.
Hurting, punishing or killing a living being does not by itself make the action violent. It is the cause behind it that matters.
Killing an animal, which kills people or destroys crops, is not an act of violence. Killing an animal or a bird for food or fun is a violent action.
To punish a person for the crime committed is not violence. Rather, not to punish a criminal is a violence. Because, if the criminal is not punished, he would harm many more innocent people, thereby creating much more violence.
The purpose of punishment is to deter the criminal from committing the crime again and to alert the others not to engage in such an act. Only harsh punishment can reduce the crime and save many people from the miseries of the crimes.
If someone attacks you and you respond with force, it is not violence. Anyone trying to harm the society or the nation, should be dealt with firmly and with force. That will save millions from sufferings. Therefore that is non-violence.
Ref: Translation of Yog Darshan by Maharishi Ved Vyas
Veda:
The Vedas are the most important scripture. The meaning of the word Veda is knowledge. The Vedas were revealed in 4 sections at the dawn of the creation to the 4 saints (Rishis):
Rig Veda - Agni Rishi
Yajur Veda - Vayu Rishi
Sam Veda - Aditya Rishi
Atharva Veda - Angira Rishi
Guest to arya samaj rajkot
With meditation, soul becomes so much powerful, that it is not afraid of even the biggest hardship, and it will be able to tolerate it easily.
How To Meditate:
Find a clean and quiet place; sit down in a right posture and close your eyes.
First stop the senses from wondering then start the Pranayam.
Point and hold the mind on the heart, navel or throat (at one of these places); get lost in God by thinking of soul and God.
By doing this repeatedly, soul and the conscious are purified, and the person becomes interested only in truthfulness.
Every living being – human, animal, bird or insect has a soul. Presence of the soul in a body keeps one alive. Departure of the soul, causes death. Therefore, bodies of people and animals are pure as long as the soul is present, they are impure after the soul leaves.
Soul stays at one place in a body, but it affects the whole body; just like a lit candle, placed at one place, brightens the whole room.
God is equally accessible to all. He is the father and the mother of all living beings. No agent or broker is needed to approach Him. No body can be a God’s agent. God does not favor any one, nor He disfavors any one.
All kinds of God worshipping we do, is not for God. It does not affect God any which way. Any action of ours has no effect on God.
Subscribe to:
Posts (Atom)